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अपनी आँखों से तेरा चेहरा हमेशा देखूँ / 'महताब' हैदर नक़वी
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अपनी आँखों से तेरा चेहरा हमेशा देखूँ
तेरी आँखों से मगर सरा ज़माना देखूँ
कुछ दिखायी नहीं देता है कि मंज़र हैं बहुत
ताब-ए-नज़्ज़ारा मिले मुझको तो क्या क्या देखूँ
दूर तक राह में अब कोई नहीं, कोई नहीं
कब तलक बिछड़े हुए लोगों का रस्ता देखुँ
आँख बाहर किसी मंज़र पे थरती ही नहीं
घर में आऊँ तो वही हाल पुराना देखूं
रात तो उसके तसव्वुर में गुज़र जाती है
कोई सूरत हो कि मैं दिन भी ग़ुज़रता देखूँ