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अपने आसमान में उन्मुक्त / मुकेश निर्विकार

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कितने प्यारे लगते हैं
अनजीये अहसास!

यूकेलिप्टस् के बहुत ऊँचे पेड़ की
बहुत ऊँची डाल पर बैठा कबूतर
न जाने क्या सोचता होगा
आदमी के बारे में?

शायद, यही कि—
“बेचारा उड़ भी नहीं सकता है
मेरी तरह
धरती का यह निरीह जीव!”

यूकेलिप्टस् के बहुत ऊँचे पेड़ की
बहुत ऊंची डाल पर
हवा में उन्मुक्त झूलता कबूतर
भला क्यों बनना चाहेगा आदमी?

बहुत हसरत से देखता हूँ मैं
कबूतर को/अक्सर
सचमुच की उड़ान भरते हुए
खुले आसमान में
जबकि धरती के रुक्ष धरातल से

मैं कल्पनाओं में भी
उड़ नहीं पाता हूँ कभी
उन दिशाओं में, उन छोरों तक,
जहां तक हो आता है वह।

किन्तु बुद्धि का भ्रम पाले हुए
कि श्रेष्ठतर है केवल मनुष्य के पास
मैं आत्ममुग्ध हुआ ही था कि तभी
कबूतर ने मेरे सिर पर
गर्म बीट मार दी
और उड़ गया
अपने आसमान में उन्मुक्त ....
मैं रह गया खड़े का खडा,
जहाँ का तहाँ
अवाक्, हतप्रभ...