भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब आओ ! / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माना, आ न सके, अब आओ !

हास घुटे अधरों के अन्दर,
अश्रु कपाटों में पलकों के,
रात्रि अमर हो, सो न जगे फिर
इतना वर दे जाओ !
माना,
आ न सके,
अब आओ !!

दूर चिता में जड़वत् बनकर,
मानव का मन झुलस रहा है,
नीर बनो, मैं कब कहता हूँ,
घृत बनकर सुलगाओ !
माना,
आ न सके,
अब आओ !!

नदी किनारे, विकल तरंगें,
करुण-स्वप्न बन शीश पटकतीं,
शान्त इन्हें ही कर दो आकर,
अपने पग धो जाओ !
माना,
आ न सके,
अब आओ !!