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अब आओ ! / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
Kavita Kosh से
माना, आ न सके, अब आओ !
हास घुटे अधरों के अन्दर,
अश्रु कपाटों में पलकों के,
रात्रि अमर हो, सो न जगे फिर
इतना वर दे जाओ !
माना,
आ न सके,
अब आओ !!
दूर चिता में जड़वत् बनकर,
मानव का मन झुलस रहा है,
नीर बनो, मैं कब कहता हूँ,
घृत बनकर सुलगाओ !
माना,
आ न सके,
अब आओ !!
नदी किनारे, विकल तरंगें,
करुण-स्वप्न बन शीश पटकतीं,
शान्त इन्हें ही कर दो आकर,
अपने पग धो जाओ !
माना,
आ न सके,
अब आओ !!