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अब ज़रूरी नहीं / रमेश रंजक

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अब ज़रूरी नहीं—
कोई टीस, कोई याद,
अब नहीं भाते लचर परछाइयों के
झूमते नीले-हरे सम्वाद
बहुत में कुछ हो गया अपवाद

डाकिये की तरह
चिट्ठी डाल कर मौसम
गुज़र जाता है
कभी पूरब, कभी पच्छिम
इन्द्रधनु ! निकले,
बरसते बादलों के बाद
अब ज़रूरी नहीं

सुबह फ़्रिज़ की सब्ज़ियों-सी
सामने आती
रोज़ चिकनी शाम
पॉलिश-सी उतर जाती
नींद आने लगी किस्तों में
टूट कर दिन हो गए बेस्वाद
बहुत में कुछ हो गया अपवाद