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अभी-बिल्कुल अभी / इंदुशेखर तत्पुरुष

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बहुत दिनों बाद जागा है वह
टूटी है उसकी नींद
बहुत दिनों बाद
वह सोता रहा और सांस लेता रहा
और इस तरह जीता रहा वह
अब उठा रहा है धीरे-धीरे
पसीने में लिथड़ी अपनी विशाल देह
जो पसरी पड़ी थी उबड़-खाबड़
धरती पर।
अब तक दृश्य से बाहर रहा उसका वजूद
आ जमा दुर्गद्वारों की चौखटों पर
तुम्हारे कक्ष की हवा
रूकी-रूकी सी लगेगी।

अचानक जाग उठी है उसकी
सदियों सोयी हुई भूख
वह भख लेना चाहता है बहुत कुछ
घबराओ मत!
उसके हिस्से का मालमत्ता
उड़ाते रहे बाकी लोग
अब तक अनवरत
उसे अनदेखा किये, उसकी
बेसुध-सी काया पर बांधते मचान
करते उछलकूद।

उसकी अंगड़ाई लेती देह अब
चाहती है खुली-खुली जगह
खुली-खुली पुस्तक
खिला-खिला भात
अपनी भभकती आग को शांत करने के लिए
इससे पहले कि वह झपट ले तुम्हारा अंश
छोड़ने होंगे अपने नाज़ायज
पुश्तैनी कब्जे
खाली करने होंगे अभी, बिल्कुल अभी।
उतरने दो उसके गले में
तवे पर गोल-गोल घूमती
आकरी रोटियों का स्वाद
उकेरने दो उसकी अनगढ़
स्वेदसिक्त हथेलियों की छाप
कोरे पृष्ठों पर।
डरो नहीं, वह कोई
ग्रहान्तर से आया अजूबा नहीं
हमारी तुम्हारी तरह का साधारण आदमी है
कुछ समय बाद सब-कुछ
हो जाएगा सामान्य
सहज-प्रसन्न-निर्मल
जैसा पहले कभी नहीं था।