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अयोध्या काण्ड / भाग 4 / रामचंद्रिका / केशवदास

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 (दोहा) एक राज मैं प्रकट जहँ, द्वै प्रभु केशवदास।
तहाँ बसत है रैनदिन, मूरतिवंत विनास।।61।।

राम भरत मिलन

कुसुमविचित्रा छंद

तब सबै सेना वहि थल राखी।
मुनि जन लीन्हे सँग अभिलाखी।।
रघुपति के चरनन सिर नाये।
उन हँसी कै गहि कंठ लगाये।।62।।

दोधक छंद

मातु सबै मिलिबे कहँ आईं।
ज्यौं सुत कौं सुरभी सु लवाईं।।
लक्ष्मण स्यौं उठिकै रघुराई।
पाँयन जाय परे दोउ भाई।।63।।
मातनि कंठ उठाय लगाये।
प्रान मनो मृत देहनि पाये।।
आइ मिली तब सीय सभागी।
देवर सासुन के पग लागी।।64।।

तोमर छंद

तब पूछियो रघुराइ। सुख है पिता तन माइ।।
तब पुत्र को मुख जोइ। क्रम तैं उठीं सब रोइ।।65।।

दोधक छंद

आँसुन सौं सब पर्वत धोये। जंगम को? जड़ जीवहु रोये।।
सिद्ध बधू सिगरीं सुन आईं। राजबधु सबई समुझाईं।।66।।

मोहन छंद

धरि चित्तर धीर। गये गंग तीर।।
शुचि ह्वै सरीर। पितु तर्पि नीर।।67।।

तारक छंद

भरत- घर को चलिए अब श्रीरघुराई।
जन हौं, तुम राज सदा सुखदाई।।
यह बात कही जल सौं गल भीन्यौ।
उठि सोदर पाइँ परे तब तीन्यौ।।68।।

दोधक छंद

श्रीराम- राज दियो हमको बन रूरो।
राज दियो तुमको अब पूरो।।
सो हमहूँ तुमहूँ मिलि कीजै।
बाप कौ बोलु न नेकहु छोजै।।69।।
(दोहा) राजा को अरु बाप कौ, बचन न मेटै कोइ।
जौ न मानिए भरत तौ, मारे को फल होइ।।70।।

स्वागता छंद

भरत- मद्यपानरत स्भीजित होई।
सन्निपातयुत बातुल जोई।।
देखि देखि तिनको सब भागै।
तासु बात इति पाप न लागै।।71।।
ईश (विष्णु) ईश (महादेव) जगदीश (ब्रह्मा) बखान्यो।
वेदवाक्य बल ते पहिचान्यो।।
ताहि मेटि हठिकै रहिहौ जौ।
गंग (मंदाकिनी) तीन तन को तजिहौं तो।।72।।
(दोहा) मौन गही वह बात कहि, छोड़îौ सबै विकल्प (विचार)।
भरत जाइ भागीरथी तीर कर्यौ संकल्प।।73।।

मंदाकिनी कृत भारतोद्बोधन

इंद्रवज्रा छंद

भागीरथी रूप अनूप कारी।
चंद्राननी लोचन-कंज धारी।।
बाणी बखानी मुख तत्व सोध्यौ।
रामानुजै आनि प्रबोध बोध्यौ।।74।।

उपेंद्रवज्रा छंद

अनेक ब्रह्मादि न अंत पायौ।
अनेकधा वेदन गीत गायौ।।
तिन्हैं न रामानुज बंध जानौ।
सुनौ सुधी केवल ब्रह्म मानौ।।75।।
निजेच्छया भूतल देहधारी।
अधर्म संहारक धर्मचारी।।
चले दशग्रीवहिं मारिबे कों।
तपी व्रती केवल पारिबे (पालने) कों।।76।।
उठो हठी होहु न काज कीजै।
कहै कछू राम, सो मानि लीजै।।
अदोष तेरी सुत मातु सोहै।
सो कौन माया इनको न मोहै।।77।।
(दोहा) यह कहि कै भागीरथी, केशव भई अदृष्ट।
भरत कह्यो तब राम सौं, देहु पादुका इष्ट।।78।।

भरत का लौटना

उपेंद्रवज्रा छंद

चले बली पायन पादुका लै।
प्रदक्षिणा राम सियाहु को दै।।
गये ते नदीपुर बास कीनौ।
सबंधु श्रीरामहिं चित्त दीनौ।।79।।
(दोहा) केशव भरतहि आदि दै, सकल नगर के लोग।
वन समान घर घर बसे, सकल विगत संभोग।।80।।