अयोध्या काण्ड / भाग 3 / रामचंद्रिका / केशवदास
भरत कौशल्या वार्ता
तोटक छंद
तब पायन जाइ भरत्थ परे।
उन भेंटि उठाइ कै अंक भरे।।
सिर सूँघि विलोकि बलाइ लयी।
सुत तो बिन या विपरीत भयी।।41।।
तारक छंद
भरत- सुनु मातु भयी यह बात अनैसी।
जु करि सुत भर्तृ-विनाशिनी जैसी।।
यह बात भयो अब जानत जाके।
द्विज दोष परैं सिगरे सिर ताके।।42।।
जिनके रघुनाथ-विरोध बसै जू।
मठधारिन के तिन पाप ग्रसैं जू।।
रस राम रस्यौ मन नाहिन जाकौ।
रन मैं नित होइ पराजय ताकौ।।43।।
कौशल्या- जनि सौंह करौ तुम पुत्र सयाने।
अति साधुचरित्र तुम्हैं हम जाने।।
सबकौं सब काल सदा सुखदाई।
जिय जानति हौं सुत ज्यौं रघुराई।।44।।
दशरथ दाह
चचरी छंद
‘हाइ’ ‘हाइ’ जहाँ तहाँ सब ह्वैं रही सिगरी पुरी।
धाम धामनि सुंदरी प्रगटीं सबै जे हुतीं दुरी।।
लै गये नृपनाथ को शव लोग श्री सरयू तटी।
राजपत्नि समेत पुत्रन विप्रलाप गढ़ी रटी (प्रलाप का समूह रटकर, बहुत सा प्रलाप करके)।।45।।
सोमराजी छंद
करी अग्नि चर्चा। मिटी प्रेत चर्चा।।
सबै राजधानी। भई दीन वानी।।46।।
कुमारललित छंद
क्रिया भरत कीनी। वियोग रस भीनी।
सजी गति नवीनी। मुकुंद पद लीनी।।47।।
भरत का चित्रकूट गमन
तोटक छंद
पहिरे बकला सु जटा धरिकै।
निज पाँयनि पंथ चले अरिकै।।
तरि गंग गये गुह संग लिये।
चितकूट बिलोकत छाँड़ि दिये।।48।।
मदनमोदक छंद
सब सारस हंस भये खग खेचर, वारिद ज्यौं बहुबारन गाजे।
वनके नर वानर किन्नर बालक लै मृग ज्यौं मृगनायक भाजे।।
तजि सिद्ध समाधिन केसव दीरघ दौरि दरीन में आसन साजे।
भूतल भूधर हाले अचानक आइ भरत्थ के दुंदुभि बाजे।।49।।
(दोहा) रामचंद्र लछमन सहित, सोभित सीता संग।
केसवदास सहास उठि, चढ़े धरनिधर-शृंग।।50।।
मोहन छंद
लक्ष्मण- देखहु भरत चमू सजि आये।
जानि अबल हमकों उठि धाये।।
हींसत हय, बहु बारन गाजै।
जहँ तहँ दीरध दुंदुभि बाजैं।।51।।
तारक छंद
गजराजनि ऊपर पाखर सोहैं।
अति सुंदर सीस सिरोमनि मोहैं।।
मनि घूँघुर घंटन के रव बाजैं।
तड़िता युत मानहुँ बारिद गाजैं।।52।।
विजय छंद
युद्ध को आजु भरत्थ चढ़े, धुनि दुंदुभि की दसहूँ दिसि धाई।
प्रात चली चतुरंग चमू, बरनी सो न केसव कैसेहुँ जाई।।
यों सबके तनत्राननि मैं झलकी अरुनोदय की अरुनाई।
अंतर ते जनु रंजन को रजपूतन की रज ऊपर आई।।53।।
तोटक छंद
उटिकै धर धारि अकास चली।
बहु चंचल वाजि खुरीन दली।।
भुव हालति जानि अकास हिये।
जनु थंभन ठौरनि ठौर किये।।54।।
तारक छंद
रन राजकुमार अरूझहिंगे जू।
अतिसम्मुख घायनि जूझहिंगे जू।।
जजु ठौरनि ठौरनि भूमि नवीने।
तिनके चढ़िबे कहँ मारग कीने।।55।।
तोटक छंद
सीता- रहि पूरि विमाननि ब्योमथली।
तिनको जनु टारन धूरि चली।।
परिपूरि अकासहिं धूरि रही।
सु गयो मिटि सूर प्रकास सही।।56।।
(दोहा) अपने कुल को कलह क्यौं देखहिं रवि भगवंत।
यहै जानि अंतर कियौ, मानौ मही अनंत।।57।।
तोटक छंद
बहु तामहँ दीह पताक लसैं।
जनु धूम मैं अग्नि की ज्वाल बसैं।।
रसना किधौं काल कराल घनी।
किधौं मीचु नचै चहुँ ओर बनी।।58।।
(दोहा) देखि भरत की चल ध्वजा, धूरिन में सुख देत।
युद्ध जुरन कौ मानहुँ प्रति योधन बोले लेत।।59।।
लक्ष्मण का कोप
दंडक छंद
लक्ष्मण- मारि डारौं अनुज समेत यहि खेत आजु,
मेटि पारौं दीरघ वचन निज गुर कौ।
सीतानाथ सीता साथ बैठे देखि छत्रतर,
यहि सुख शौषौं शोक सबही के उर कौ।
केसौदास, सविलास बीस बिसे बास होइ,
कैकेयी के अंग अंग शोक पुत्रजुर कौ
रघुराज जू को साज सकल छिड़ाइ लेउँ
भरतहि आजु राज देउँ प्रेत-पुर कौ।।60।।