अयोध्या काण्ड / भाग 2 / रामचंद्रिका / केशवदास
चंचला छंद
रामचंद्र धाम ते चले सुने जबै नृपाल।
बात को कहै सुनै, सो ह्वै गये महा विहाल।
ब्रह्मरंध्र फोरि जीव यौं मिल्यो द्युलोक जाइ।
गेह (पिंजरा) चूरि ज्यौं चकोर चंद्र मैं मिलै उड़ाइ।।21।।
चंचरी छंद
कौन हौ, कित तें चले, कित जात हौ, केहि काम जू।
कौन की दुहिता, बहू, कहि कौन की यह बाम जू।।
एक गाँउँ रहौ कि साजन मित्र बंधु बखानिए।
देश के, परदेश के, किधौं पंथ की पहिचानिए।।22।।
जगमोहन दंछक
किधौं यह राजपुत्री, वरहीं वरîों है किधौं,
उपदि (गुरुजन की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से) वस्îा है यहि सोभा अभिरत हौ।
किधौं रति रतिनाथ जस साथ केसौदास
जात तपोवन सिव बैर सुमिरत हौ।
किधौं मुनि शापहत, किधौं ब्रह्मदोषरत,
किधौं सिद्धियुत, सिद्ध परम विरत हौ।
किधौं कोऊ ठग हौ ठगोरी लीन्हें, किधौं तुम
हरि हर श्री हौ शिवा चाहत फिरत हौ।।23।।
मत्त मातंग लीला-करन दंडक
मेघ मंदाकिनी (आकाश गंगा) चारु सौदामिनी
रूप रूरे लसैं देहधारी मनौ।
भूरि भागीरथी भारती हंसजा
अंस के हैं मनौ भाग भारे मनौ।।
देवराजा लिये देवरानी मनौ
पुत्र संयुक्त भूलोक में सोहिए।
पच्छ दू संधि संध्या सधी है मनौ
लच्छि ये स्वच्छ प्रत्यक्ष ही मोहिए।।24।।
अनंगशेखर दंडक
तड़ाग नीर-हीन ते सनीर होत केसौदास
पुंडरीक-झुंड भौंर मंडलीन मंडहीं।
तमाल वल्लरी समेत सूखि सूखि के रहे
ते बाग फूलि फूलि कै समूल सूल खंडहीं।।
चितै चकोरनी चकोर, मोर मोरनी समेत
हंस हंसिनी समेत, सारिका सबै पढ़ैं।
जहीं जहीं विराम लेत रामजू तहीं तहीं
अनेक भाँति के अनेक भोग माग सो बढ़ै।।25।।
सुंदरी छंद
घाम को राम समीप महाबल।
सीतहिं लागत है अति सीतल।।
ज्यों घन संयुत दामिनि के तन।
होत हैं पूषन के कर (सूय की किरणें) भूषन।।26।।
मारग की रज तापित है अति।
केशव सीतहि सीतल लागति।।
ज्यौं पद-पंकज ऊपर पाँयनि।
दै जो चलै तेहि ते सुखदायनि।।27।।
(दोहा) प्रति पुर औ, प्रति ग्राम की, प्रति नगरन की नारि।
सीताजू को देखिकै, बरनत हैं सुखकारि।।28।।
जगमोहन दंडक
बासों मृग-अंक कहै, तीसों मृगनैनी सब,
वह सुधाधर, तुहूँ सुधाधर मानिए।
वह द्विजराज, तेरे द्विजराजि राजैं; वह
कलानिधि, तुहूँ कला कलित बखानिए।।
रत्नाकर के हैं दोऊ केसव प्रकास कर,
अंबर विलास कुबलय हित मानिए।
वाके अति सीत कर, तुहूँ सीता सीतकर,
चंद्रमा सी चंद्रमुखी सब जग जानिए।।29।।
कलित कलंक केतु, केतु अरि, सेत गात,
भोग योग को अयोग, रोग ही को थल सौं।
पून्यौई को पूरन पै प्रतिदिन दूनो दूनो
छन छन छीन होत छीलर (चुल्लू, अँजुली) को जल सौं।।
चंद्र सौं जो बरनत रामचंद्र की दुहाई
सोई मतिमंद कवि केसव कुसल सौं।
सुंदर सुवास अरु कोमल अमल अति
सीताजू को मुख सखि केवल कमल सौं।।30।।
एके कहैं अमल कमल मुख सीताजू कौ
एकै कहैं चंद्र सम आनँद को कंद री।
होइ जौ कमल तौ रयनि में न सकुचै री
चंद जौ तौ बासर न होइ द्युति मंद री।।
बासर ही कमल रजनि ही में चंद्र मुख
बासर हू रजनि बिराजै जगबंद री।
देखे मुख भावै अनदेखेई कमल चंद
तातैं मुख मुखै, सखी, कमलौ न चंद री (इससे इस मुख के समान यही मुख है, कमल और चंद्र इसके समान नहीं है।)
(दोहा) सीता नयन चकोर सखि; रविवंशी रघुनाथ।
रामचंद्र सिय कमल मुख, भलो बन्यो है साथ।।32।।
विजय छंद
बहु बाग तड़ाग तरंगनि तीर
तमाल की छाँह बिलोकि भली।
घटिका इक बैठत हैं सुख पाय
बिछाय तहाँ कुस कास थली।।
मग कौ श्रम श्रीपति दूरि करैं
सिय के सुभ बालक अंचल सौं।
श्रम तेऊ हरें तिनकौ कहि केशव
चंचल चारु दृंगचल सौं।।33।।
(सोरठा) श्री रघुबर के इष्ट, अश्रु वलित सीता नयन।
साँची करी अदृष्ट; झूँठी उपमा मीन की।।34।।
(दोहा) मारग यौं रघुनाथ जू, दुख सुख सबही देत।
चित्रकूट पर्वत गये, सोदर सिया समेत।।35।।
भरत प्रत्यागमन
दोधक छंद
आनि भरत पुरी अवलोकी।
थावर जंगम जीव ससोकी।।
भाट नहीं विरदावलि साजैं।
कुंजर गाजैं न दंदुभि बाजैं।।36।।
राजसभा न विलोकिय कोऊ।
सोक गहे तब सोदर दोऊ।
मंदिर मातु विलोकि अकेली।
ज्यौं बिनु वृक्ष विराजति वली।।37।।
तोटक छंद
तब दीरघ देखि प्रणाम कियौ।
उठि कै उन कंठ लगाइ लियौ।।
न पियौ छल संभ्रम भूलि रहे।
तब मातु सौं बैन भरत्थ कहे।।38।।
भरत कैकेयी प्रश्नोत्तर
विजय छंद
“मातु! कहा नृप?” ‘तात! गये सुर
लोकहिं,” ”क्यो?“ ”सुत-शाक लये।“
”सुत कौन?“ ”सुराम“ कहाँ है अबै?“
”बन लक्ष्मण सीय समेत गये।।“
”बन काज कहा कहि।“ ”केवल मो सुख,“
”तोकों कहा सुख यामैं भये?“
”तुमकों प्रभुता“ ‘धिक तोकों!
कहा अपराध बिना सिगरेई हये?“।।39।।
(दोहा) ”भर्त्ता सुत विद्वेष्ज्ञिनी, सबही कौं दुखदाइ।“
यह कहि देखे भरत तब, कौशल्या के पाइ।।40।।