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अयोध्या काण्ड / भाग 1 / रामचंद्रिका / केशवदास

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राम वन गमन

(दोहा) रामचंद्र लक्ष्मण सहित, घर राखे दशरत्थ।
बिदा कियो ननसार (ननहाल) को, संग सत्रुघ्न भरत्थ।।1।।

तोटक छंद

दशरत्थ महा मन मोद रये। तिन बोलि वशिष्ठहिं मंत्र लये।
दिन एक कहो शुभ शोभ रयो। हम चाहत रामहिं राज दयो।।2।।
यह बात भरत्थ की मातु सुनि। पठऊँ वन रामहिं बुद्धि गुनी।
तेहिं मंदिर मैं नृप सों विनयो। वर देहु, हतो हमको जो दयो।।3।।
नृप बात कही हँसी हेरि हियो।
‘वर माँगि सुलोचनि मैं जो दियो’
‘नृपता सुविशेष भरत्थ लहैं।
बरषैं वन चौदह राम रहैं’।।4।।

पद्धटिका छंद

यह बात लगी उर वज्र तूल।
हिय फाट्यो ज्यों जीरन दुकूल।।
उठि चले विपिन कहँ सुनत राम।
तजि तात मात तिय बंधु धाम।।5।।

कौशल्या और राम

मौक्तिकदाम छंद

गये तहँ राम जहाँ निज मात।
कही यह बात कि हैं बन जात।।
कछू जनि जी दुख पावहु माइ।
सो देह अशीष मिलौं फिर आइ।।6।।
कौशल्या- रहौ चुप ह्वै सुत क्यों बन जाहु।
न देखि सकैं तिनके उर दाहु।।
लगी अब बाप तुम्हारेहि बाइ।
करै उलटी बिधि क्यों कहि जाइ।।7।।

ब्रह्म रूपक छंद

राम- अन्न देह सीख देह राखि लेइ प्राण जात।
राज बाप मोल लै करै जो दीह पोषि गात।
दास होइ पुत्र होइ शिष्य होइ कोइ माइ।
शासना (आज्ञा) न मानई तौ कोटि जन्म नर्क जाइ।।8।।

हरनी छंद

कौशल्या- मोहिं चलौ बन संग लियैं। पुत्र तुम्हैं हम देखि जियैं।
औधपुरी महँ गाज परै। कै अब राज भरत्थ करै।।9।।

तोमर छंद

राम- तुम क्यौं चलो बन आजु। जिन सीस राजत राजु।।
जिय जानिए पतिदेव। करि सर्वभाँतिन सेव।।10।।
(दोहा) मनसा वाचा कर्मणा, हम सों छोंड़ो नेहु।
राजा को विपदा परी, तुम तिनकी सुधि लेहु।।11।।

सीता प्रति राम का उपदेश

पद्धटिका छंद

उठि रामचंद्र लक्ष्मण समेत।
तब गये जनकतनया-निकेत।।
राम- सुनु राजपुत्रिके एक बात।
हम बन पठये हैं नृपति तात।।12।।
तुम जननि-सेव कह रहहु वाम।
कै जाहु आजुही जनक धाम।।
सुनु चंद्रवदनि गजगमनि ऐनि।
मन रुचै सो कीजै जलजनैनि।।13।।

नाराच छंद

सीता- न हौं रहौं, न जाहुँ जू विदेह-धाम को अबै।
कहा जो बात मातु पै सो आजु मैं सुनि सबै।।
लगे छुघाहि माँ भली विपत्ति माँझ नारियै।
पियास त्रास नीर, बीर युद्ध मैं सम्हारियै।।14।।

सुप्रिया छंद

लक्ष्मण- बन महँ विकट विविध दुख सुनिए।
गिरि गहवर मग अगमहि गुनिए।।
कहँु अहि हरि, कहु निशिचर चरहीं।
कहुँ दव दहन दुसह दुव दहहीं।।15।।

दंडक छंद

सीता- केसौदास नींद भूख प्यास उपहास त्रास
दुख कौ निवास विष मुखहू गह्यौ परै।
वायु को वहन, दिन दावा को दहन, बड़ी
बाड़वा-अनल ज्वाल जाल में रह्यौ परै।।
जीरन जनम जात जोर जुर (ज्वर) घोर पीर
पूरण प्रकट परिताप क्यों कह्यौ परै।
सहिहौं तपन ताप, पति के प्रताप, रघु
वीर को विरह वीर मोसों न सह्यौ परै।।16।।

लक्ष्मण प्रति राम का उपदेस

विशेषक छंद

राम- धाम रहौ तुम लक्ष्मण राज की सेव करो।
मातनि के सुनि तात सो दीरघ दुःख हरौ।।
आइ भरत्थ कहा धौं करै जिय भाय गुनौ।
जौ दुख देइँ तो लैं उरगौ (अंगीकार करो; सहो) यह बात सुनौ।।17।।
लक्ष्मण- (दोहा) शासन मेटो जाय क्यों, जीवन मेरे हाथ।
ऐसी कैसे बूझिए घर सेवक, वन नाथ।।18।।

वनयात्रा

दु्रतविलंबित छंद

विपिन-मारग राम विराजहीं।
सुखद सुंदरि सोदर भ्राजहीं।।
विविध श्रीफल सिद्धि मनो फल्यो।
सकल साधन सिद्धिहि लै चल्यो।।19।।
(दोहा) राम चलत सब पुर चल्यो, जहँ तहँ सहित उछाइ।
मनौ भगीरथ-पथ चल्यो, भागीरथी-प्रवाह।।20।।