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अरे ओ बागवाँ / गुलाम अहमद ‘महजूर’ / अग्निशेखर

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अरे ओ बागवाँ, आ !
नवबहार की शान पैदा कर
खिलें गुल उड़ें बुलबुल
वो सामान पैदा कर

यह बगिया है वीरान
यह शबनम का आर्तनाद
ये चिन्तित फूल देख फटेहाल
आ गुलों और बुलबुलों में
फिर नई तू जान पैदा कर

एक भी रहे न झाड़ काँटेदार
यह बगिया ख़ूबसूरत है
यहाँ तू सुम्बुल पुष्प सी
अतुल सदा मुस्कान पैदा कर

असीमित हो अखण्डित हो
प्रेम हो आदमी को देश का
तुम इसी से पा सकोगे लक्ष्य को
आ चतुर्दिक वेग से तू
बस, यही ईमान पैदा कर

तुझे कौन आकर मुक्ति देगा
बुलबुल, पिंजरे की क़ैद से
उठ सम्भल,अपनी मुश्किलों का
ख़ुद समाधान पैदा कर

हकूमत, माल-दौलत, नाज़-नखरे
ठाठ के हर्षोल्लास
सब तुम्हारे हाथ में हैं
तू इनकी गौर से पहचान पैदा कर

बोलते हैं मगर बगिया में
स्वर अलग हैं पंछियों के
इन स्वरों की विलगता में
ऐ ख़ुदा,असर समान पैदा कर

अगर है चाहना इस बस्ती को जगाने की
तो छोड़ कोमल-भावना, साज़ो संगीत
ला भूकम्प, आँधी ला,
गरज घनघोर
वो तूफ़ान पैदा कर ।

मूल कश्मीरी भाषा से अनुवाद : अग्निशेखर