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आखिर क्यों? / मुकेश निर्विकार

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मैंने नहीं देखी
कभी/कोई दरार पड़ती
इन दीवारों में!

बईमान, भ्रष्ट लोंगो की हवेलियों में भी
सीमेंट चिपक ही जाता है/सब जगह
खरीदा गया हो/भले ही
रिश्वत के पैसे से?

खून तो/उनके भी शरीर में बनता ही है
चूसते हैं जो/दूसरों का रक्त/रात दिन?

मारा हुआ मुर्गा/पतीली में पककर
स्वाद के साथ-साथ/पौष्टिकता भी देता है
हजम कर लेता है/आदमी का उदर/उसे भी/
फिर/न जाने कब, किधर और किस पर
असर करती हैं/ मारे गए जीव की आहें?

मेरे प्रश्नाकुल मन को
दबोच दिया जाता है
तरह-तरह की हिदायतों से
और दी जाती है धम्की/मेरे ऊपर
नास्तिकता का लेवल लगाने की।

डांट-डपट/मान-अपमान सहकार
चल देता हूँ मैं
धर्म गुरुओं की ऊँगली पकड़े
एक जिज्ञासु बच्चे की तरह
अपने प्रश्नो की रट लगाये...

प्रश्न तो आखिर कुलबुलाते ही हैं
उन पर भला किसका वश चलता है!