भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आगे बढ़ता हूँ / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
Kavita Kosh से
मैं जितना आगे बढ़ता हूँ
पथ उतना बढ़ता जाता है !
युग-युग से नियति-पत्र पर ये
नित चित्र बनाता है किसका,
पलकों में अदल-बदल भरता
जाता है आकर्षण जिसका,
इन सहमी बैठी श्वासों को
क्यों और भला डरपाता है !
मैं जितना आगे बढ़ता हूँ
पथ उतना बढ़ता जाता है !!
आंसू की बून्दें चिनगारी
बनकर दहकीं मेरे दृग में,
सुधियाँ घर की कण्टक बनकर
चुभ गईं, यहाँ, मेरे पग में !
कोई शोणित का प्यासा है
अपना कर-पात्र बढ़ाता है !
मैं जितना आगे बढ़ता हूँ
पथ उतना बढ़ता जाता है !!
युग-युग तारों ने चलकर भी
है नहीं पार पथ कर पाया,
रूठे तन-प्राण मनाने को
यह तूफ़ानी अन्धड़ आया,
युग-युग का वैभव नष्ट हुआ
मानव का मन घबराता है !
मैं जितना आगे बढ़ता हूँ
पथ उतना बढ़ता जाता है !!