भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आजकल जब कि मेरे पास है फ़ुरसत जानां / अनीस अंसारी
Kavita Kosh से
आजकल जब कि मेरे पास है फ़ुरसत जानां
दूर मसरूफ़ हो, कैसे हो मुहब्बत जानां
रात तो नींद के पहलू में गुज़र जाती है
दिन में तन्हाई के संग रहती है साहेबत जानां
आज कुछ बात है जो दर्द सिवा होता है
दस्त-ए-नौमीदी ने क्यों की है जराहत जानां
कासा-ए-चश्म पे शायद कोई रूक्क़ा आये
दर-ए-सरकार कभी बटती है नेअमत जानां
बेगुनाही की सज़ा है तो गुनह बेहतर था
लज़्ज़त-ए-दहर से कुछ मिलती हलावत जानां
हैं शहीदों पे अज़ादारी की रस्में मतरूक
अब यज़ीदों पे नहीं होती मलामत जानां