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आज अपने आप से भी / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
आज अपने आपसे भी उठ गया विश्वास!
सजल जो सपने सँजोए,
नयन में मन में जुगोए,
आज वे भी जब न रह पाए, रहा क्या पास?
आस पर जिनकी चला मैं,
आज उनसे ही छला मैं,
साधना की भित्तियाँ भी बन गईं परिहास!
धुल गई धुँधली प्रतीक्षा,
हो गई अन्तिम प्रतीक्षा;
बुत बनी इन पुतलियों में आज गति न विलास!
अब न डोलेगा कभी मन,
अब न सिहरेगा तभी तन,
बाँध पाएगा हृदय को अब न कोई पाश!