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आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते / वंदना गुप्ता

उसने कहा

खुली किताब खुले पन्ने
हर्फ़ फिर भी पढ ना पाया

चल ज़ालिम पढने का शऊर भी ना सीख पाया तूफिर मोहब्बत क्या खाक करेगा

सुन ज़ालिम चिल्लाया
मोहब्बत का हुनर किताबों में नहीं मिला करता

वो बोली

अरे शैदाई यहाँ कौन सी किताब पढनी है
एक लफ़्ज़ है प्रेम जिसकी इबादत करनी है
और पढा दिया मोहब्बत का पहला पाठ

ढाई आखर की तो कहानी है
मगर उससे पहले जरूरी है
रेखाओं को रेखांकित करना,
किसी के दर्द को महसूसना,
किसी के अनकहे जज़्बातों को
हर्फ़ -दर- हर्फ़ पढना
यूँ ही मोहब्बत नहीं की जा सकती
मानो माला के मनके फ़ेरे हों
और ह्रदय में बीजारोपण भी ना हुआ हो
मोहब्बत करने के लिये
आत्मसात करना होता है बेजुबानों की जुबान को,
दर्द के मद्धम अहसास को,
इश्क की टेढी चाल को,
पिंजरे में बंद मैना की मुस्कान को,
मुस्कुराहट में भीगी दर्द की लकीर को,
उम्र के ताबूत में गढी आखिरी कील को
जो निकालो तो लहू ना निकले और लगी रहे तो दर्द ना उभरे
मोहब्बत के औसारों पर फ़रिश्ते नहीं उतरा करते
वहाँ तो सिर्फ़ दरवेश ही सज़दा किया करते हैं
क्या है ऐसा मादा तुझमें मोहब्बत का जानाँ
जोगी बन अलख जगाने का और हाथ में कुछ भी ना आने का
गर हो तो तभी रखना मोहब्बत की दहलीज़ पर पाँव
क्योंकि
यहाँ हाथ में राख भी नहीं आती
फिर भी मोहब्बत है मुकाम पाती
उम्र की दहलीजों से परे, स्पर्श की अनुभूति से परे, दैहिक दाहकता से परे
सिर्फ़ रूहों की जुगलबंदी ही जहाँ जुम्बिश पाती
बस वहीं तो मोहब्बत है आकार पातीकभी खुश्बू सा तो कभी हवा सा तो कभी मुस्कान सा
निराकारता के भाव में जब मोहब्बत उतर जाती
फिर ना किसी दीदार की हसरत रह जाती
फिर ना किसी खुदा की बन्दगी की जाती
बस सिर्फ़ सज़दे में रूह के रूह पिघल जाती
और कोई खुशगवार छनछनाती प्रेम धुन हवाओं में बिखर जाती
बाँसुरी की धुन में किसी राधा को गुनगुनाती सी
और हो जाता निराकार में प्रेम का साकार दर्शन
गर कर सको ऐसा जानाँ
तभी जाना किसी पीर फ़कीर की दरगाह पर प्रेम का अलख जगाने
जो सुना तो शैदाई ना शैदाई रहा वो तो खुद ही फ़कीर बन गया
आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते जो देवता को अर्पित हो सकें