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आठमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

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आठमोॅ अध्याय

(अक्षर ब्रह्मयोग के नामोॅ से गीता के है आठमोॅ अध्याय में जीव केॅ गति और सम्बन्ध उद्यृत छै। ब्रह्मज्ञान आरो निरन्तर ब्रह्मचेतन सें ही सत्गति संभव छै। भगवानोॅ के भक्ति अथवा योग करते हुए कर्म राह पर चलै के सन्देशा छै। यै अध्याय केॅ परम प्राप्ति के नाम भी कोय-कोय कहै छै। मुक्ति मार्ग से परमात्मा तक के सफर के बात छै। योग क्रिया द्वारा इन्द्रिय आरो मन के दमन, ब्रह्म सें एकाकार एवं श्रृष्टि प्रलय तथा कल्प के विवेचन यै अध्याय में छै। मृत्युपरान्त सत्गति या दुर्गति के लेखा-जोखा आरो बेद, यज्ञ, तप आरो दान के महत्व अलग-अलग रूपोॅ में दर्शॅलोॅ गेलोॅ छै)

अर्जुनें पुछलकै पुरूषोत्तम!
अध्यात्म कर्म आरो ब्रह्म छै की?
हौ अधिदेव आरो अधिभूत
की छेकै, जरा बताबोॅ नीं?॥1॥

हे मधुसूदन! है अधियज्ञ ठो, रहै कहाँ यै काया में?
कोय केनां जानतै मृत्युकाल? जे आवै तोर्है छाया में?॥2॥

भगवानें बुझैलकै नाश रहित, अक्षर ही ब्रह्म कहाबै छै
अध्यात्म चेतना अन्दर के, औॅ क्रिया ही कर्म बताबै छै॥3॥

भौतिक प्रकृति ही अधिभूत, अधिदेव सकाम जे पूजित छै
अधियज्ञ नाम परमात्मा केॅ, जे नर देवोॅ में विराजित छै॥4॥

हौ मनुज जौनें कि मृत्युकाल, है देह त्याग केरोॅ वक्तीं
हमर्है नामोॅ के याद करै, निश्चय ही पैतै वें मुक्ति॥5॥

है देह त्याग के समय जे नर, केवल हमरोॅ सुमिरन करतै
हौ निश्चय ही निर्विघ्न रूप, हमरा में आबी केॅ मिलतै॥6॥

यै लेली मनुज जें हरदम ही, हरकाल में हमरा ही सुमिरै
वें बिन संसय हमरा पाबै, बुद्धि मन अर्पण जौनें करै॥7॥

अभ्यास योग में लीन पुरूष, जे हमरे चिन्तन में अैलै
हे पार्थ! बिना शक हौ प्राणी, हमरा दिव्योॅ में समैलै॥8॥

सर्वज्ञ कवि ब्रह्मोॅ में लीन, जें जानै पुरातन रूपोॅ केॅ
पालक, धारक, शासक, अन्वति, ज्योतिर्तम हमरा स्वरूपोॅ केॅ॥9॥

जे मृत्युकाल योगोॅ के बल, भु्रव मध्य प्राण राखी सुमिरै
पर ब्रह्मोॅ केरोॅ तारतम्य सें, निश्चय एकाकार करै॥10॥

जे वेद ज्ञानीं यति वीत राग, ब्रह्मचारी बनलोॅ प्राणी छै
हौ ब्रह्मै में आवी केॅ खपै, जे ब्रह्मा नन्द के ज्ञानी छै॥11॥

सब द्वार विषय के दमन करी, मन, हृद् मस्तिष्क सजावै जें
वस कठिन साधना में जे सतत, योगी अभ्यास कहाबै से॥12॥

है योग क्रिया के क्रम में ही, जें ‘ओउम’ शब्द व्यवहार करै
वें ब्रह्म में एकाकार करी, मृत्युउरान्त ब्रह्म लोक धरै॥13॥

हे पार्थ! सतत जें चेतन सें, हमरा हरदम्में याद करै
ओकरा लेली छी सुलभ तुरत, जखनी हमरोॅ फरियाद करै॥14॥

हमरा सें एकाकारी पुरूष, फिन पुनर्जन्म नैं धारै छै
ऊवरी सांसारिक दुःखोॅ सें, वे परम ब्रह्म अधिमारै छै॥15॥

भौतिक जग के हर प्राणी में, भौतिक दुःख सन्तापोॅ के घर
हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! हमरा लग, नै छै ओकरोॅ कटियो डर॥16॥

एक दिवस ब्रह्म के एक कल्प, जे चारो युग के जोड़ एक
युग कैक सहस्त्रों वर्षों के, रात्रि ब्रह्मोॅ के वही लेख॥17॥

कल्पादि में दिन के होथैं, जीवन क्रम-श्रृष्टि लाबै छै
कल्पान्तों के राती घुसथै, जीवन केॅ प्रलय बहाबै छै॥18॥

है रङ ही बनै छै कल्प दिवश, जे श्रृष्टि के संग-संग आबै
वैसे ही होय छै कल्प रात्रि, जे प्रलय स्वरूप केॅ देखलाबै॥19॥

है श्रृष्टि प्रलय सें ऊपर छै, हौ परम ब्रह्म केरोॅ सत्ता
जेकरा में लीन होय गेला सें, अस्थिरता के कहाँ अता-पता?॥20॥

हौ परम ब्रह्म, अक्षर अब्यय, जे परमानन्द कहाबै छै
जे पहुंचै छै हौ सत्ता तक, फेनू घूरी नैं आबै छै॥21॥

हौ पुरूष, पार्थ! सबसें ऊपर भक्ति केॅ जल्दी धराबै जें
हौ आपन्है गुण में सतत रही, हर चीजोॅ के ही समाबै वें॥22॥

हे भरत पुत्र! बतलावै छी, हौ राज तोरा वै बेला के
के मृत्यु बाद आबी जन्मै? आरो के नै पड़ै झमेला में?॥23॥

उत्तरायण सुर्य के साथ मरै, जे अग्नि, ज्योति पक्ष शुक्लोॅ में
हौ ब्रह्मोॅ में फिन जाय मिलै, बस ब्रह्म ज्ञान के शक्लोॅ से॥24॥

दक्षिणायण सुर्य के साथ मरै, जे धुम्र रात्रि कृष्ण पक्षोॅ में
हौ लौटी केॅ अैतै जरूर, घुरी चन्द्रलोक के कक्षोॅ में॥25॥

बेदोॅ में दुइये बाते छै, तम औॅ प्रकाश के फेरा के
जे तम में मरतै फिन अैतै, रोशनीं ही टपैतै घेरा केॅ॥26॥

जे योगीं जानै दू रहस्य, हे अर्जुन! योग सें ध्यान धरै
यै हेतु मोह सें दूर तोरोॅ बुद्धिं ओकरोॅ अनुशरण करै॥27॥

जे वेद यज्ञ, तप, दान प्रवृत
जेकरोॅ योगाभ्यासोॅ में रूचि
हौ नर पहुंचै छै परम धाम
वें पबौ सत्कर्मोॅ के गति॥28॥