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आह-ए-शब-ए-नाला-ए-सहर ले कर / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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आह-ए-शब-ए-नाला-ए-सहर ले कर
निकले हम तोश-ए-सफर ले कर
शुग़्ल है नाला कुछ मुराद नहीं
क्या करूँ ऐ फ़लक असर ले कर
तेरी महफ़िल का यार क्या कहना
हम भी निकले हैं चश्म-ए-तर ले कर
आप मैं ने दिया दिल उस बुत को
झुक गई शाख़ ख़ुद समर ले कर
था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर
उड़ सके हम न बाल ओ पर लेकर
‘वहशत’ उस बज़्म में रहे थे रात
सुब्ह निकले हैं दर्द ए सर लेकर