भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इफ़लास-ज़दा दहकानों ने ख़लिहान बेच डाला / कबीर शुक्ला
Kavita Kosh से
इफ़लास ज़दा दहक़ानों ने ख़लिहान बेच डाला।
टूटे बिखरे अपने ख़्वाब-ओ-अरमान बेच डाला।
तख़रीब मिली है फिर नादान अलमनसीब को,
तामीर बनाने की खातिर जो पहचान बेच डाला।
टूटा सा' मकाँ गिरवी था लाख लगान बकाए थे,
ईमान बचाने की खातिर वो' मक़ान बेच डाला।
बेटी घर में ही इक बिन व्याह जवाँ पड़ी हुई थी,
फिर व्याह कराने को हर एक समान बेच डाला।
दो वक्त की रोटी के खातिर फिरता है इधर उधर,
फिर आखिर अपने अंदर का किसान बेच डाला।