उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे
ओ संतप्त, उदास सितारे, ओ संध्या के तारे!
रजत-रुपहले मैदानों को किरण तुम्हारी करती
काले शृंगों में, खाड़ी में रंग रुपहला भरती।
ऊँचे नभ में तेरी मद्धिम लौ है मुझे सुहाती
सोए हुए हृदय में मेरे चिन्तन, भाव जगाती,
याद उदय-क्षण मुझे तुम्हारा, नभ दीपक पहचाने
उस धरती पर जहाँ हृदय बस, सुख-सुषमा ही जाने,
जहाँ घाटियों में अति सुन्दर, सुघड़ चिनार खड़े हैं
जहाँ ऊँघती कोमल मेहंदी, ऊँचे सरो बड़े हैं
जहाँ दुपहरी में लहरों का मन्द, मधुर कोलाहल
वहीं, कभी पर्वत पर अपना हृदय लिए अति आकुल,
भारी मन से मैं सागर के ऊपर रहा टहलता
नीचे, घाटी के प्रकाश को तम जब रहा निगलता,
तुम्हें ढूँढ़ने को उस तम में युवती दृष्टि घुमाए
तुम उसके हमनाम यही वह सखियों को बतलाए।
रचनाकाल : 1820