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उतरते हुए / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
दिन के ऊँचे पहाड़ से
उतरते हुए धीरे-धीरे
एड़ी से कानों तक
बज उठे मँजीरे
जेबों में सरकारी झिड़कियाँ लिए
घूमते रहे
महँगी पोशाकों के बग़ीचे में आहिस्ते
हम टूटी टहनी-से झूमते रहे
कितनी कमज़ोर हीन भावना लिए
ठहरते हुए धीरे-धीरे
चेहरे से पाँवों तक
ठहर-ठहर कर
एक टेप चिपकती गई
आँखों के भीतर की आँख
बूँद-बूँद टपकती गई
कौन हाथ बीनें वे हीरे
धीरे-धीरे