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उदास हैं गडेरिए / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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उदास हैं गडेरिए
कैची से कतरे भेड़ों के बाल के ढेर
उड़ रहे हैं हवा में मेंड़, खेत, रास्ते पर
जिसका वे सूत कात
चरखे पर बनाते थे कंबल
उजले-काले-चितकबरे कंबलों को
दूर-दूर से खरीदने आते थे लोग
इनकी कारीगरी की मांग होती थी मेला-बाजार में

अब कोई नहीं पूछता उनके उत्पादों को
सुदूर गाँव तक पहुँचने लगी हैं परदेसी वस्तुएँ
मॉल की सजी-धजी चकाचौंध के सामने
खत्म हो गई है इस देहाती हुनर की मांग
याद है उसे कुछ साल पहले तक किसान
अपने खेतों में भेड़ों के झुंड हीराने के लिए करते थे चिरौरियाँ। नींबू और अमरूद की जड़ों में भेडों
के बीट फेंटने से स्वादिष्ट फलों से महकते थे बागान रसोई में इसके घी की छौंक के सुगंध से भर जाती थीं गाँव की गलियाँ
लोगों ने बदल दिया है अपना चलन-स्वभाव
मदार के फाहे-सा उड़ रहा है गड़ेरिया का पुश्तैनी धंधा, जिसके सहारे जीता था उसका सुखी परिवार

भेड़ के दूध, घी की पूछ नहीं रही अब
जैसे भूल गए लोग रेड़ के दानों से तेल निकालने का सलीका
पाकड़-बरगद के गोदा से अचार बनाने की विधि
ईख की रस से सिरका बनाने का कौशल
साढे पांच हाथ के लग्गा से जमीन मापने का अंदाज

भेड़ का कंबल पुआल पर बिछा देने से
आराम से कट जाती थी पूस की रात
पंडित जी की आसनी, बूढ़े बाबा का ओढ़ना था वह भेड़ के बाल बहुरिया के सिन्होरा में रखने के लिए देती थी गड़ेरिया कि घरवाली, सगुन उठने के दिन

भेड़ों के चरने की बहुत कम जगह बची है गांवों में अच्छे चारागाह, गोचर भूमि, सार्वजनिक जगहों को खोजते भटकते हैं गड़ेरिए
जंगल-पहाड़, निर्जन स्थानों में शीत-वर्षा-घाम झेलते। झबरेले कुत्तों, जंगली जानवरों, टूनकी बीमारी से जूझते हुए
कृष्ण मृगों जैसी स्वच्छंदता भी नसीब नहीं उन्हें

भेड़ों के बाल उड़ रहे हैं धूल में
तड़प रही है गडेरिए की आत्मा
अब कोई नहीं आता उनके पास
इस साल वह मनौतियाँ कर आया है काशीनाथ बाबा कि पूजा में, गोहराते हुए सावन में कुश परास देवों को इधर आते हैं कुछ सौदागर खरीदने भेड़ों को नहीं, उसके गुदरे मांस की लालच में
बहुत उदास है गड़ेरिए
इसलिए नहीं कि विकसित होते जा रहे जमाने में उनकी बुनी कंबलों के मिलते नहीं खरीददार
उदास रहते हैं कि घिस चुका है भलमनसाहत का दौर जहान में कहीं खो गए भेड़ की चाल चलने वाले लोग जीवित मांस की खरीददारों की धमाचौकड़ी में।