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उमी मझेन / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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एक संताली औरत, जिसे हल जोतने के कारण पीटा गयाद्ध
तुम्हारे संथाली गीतों में
अब भी क्यों उभर आता है
खोआई का जंगल
जिसमें दीखते हैं
लकड़बग्घे और बिलाव
कुंड़ों की आड़ में
कौवे की पुतलियों-सी तुम्हारी आंखों में
किसके लिए तैरने लगता है निर्मल पानी
कहो उमी मझेन!
तुम्हारे उजड़े खेत में
जिसमें उपजता था पच्चीस मन धन
वंशी में चारे की तरह पफंसा था पूरा गांव
आखिर तुम औरत चौआ होकर
हल-बैल से कैसे कर सकती हो
उसकी जुताई-बोआई
परंपरा के गुलाम नुनू टुडू ने
बरसाए थे तुम्हीं पर न साही के कांटे
जिसकी मारक क्षमता से
भरभरा गयी थी तुम
भरभरा गयी थी पूरी औरत बिरादरी
और तमाशबीन बना था गांव
तुम्हारे हिस्से में नहीं मिला
तीर-ध्नुष का संधन
न चला सकती हो उस्तरे
न ही बजा सकती हो मांदल और ढोल
न दे सकतती हो बेदिका पर
पशुओं की बलि
न खा ही सकती हो
वार्षिक पूजा के प्रसाद
न छार सकती हो बारिश में छान-छप्पर
नहीं तो कतर दिये जायेंगे
तुम्हारे दोनों ही कान
पति की अनुपस्थिति में जब
हल जोतने गयी थी डेढ़-बिगहे जमीन पर
तो बैलों के साथ बांध कर
क्यों लगवाये गये तुमसे ढाई चक्कर
जानवरों की तरह खल्ली-भूसा
खाने पर तुम्हें ही क्यों किया गया मजबूर
जंगली स्थान की इन
लाल चींटियों का दंश
तुम्हें बिसाता नहीं है उमी मझेन!
गरुओं की तरह घसीटे जाते हुए
खाते हुए लात और छड़ियां
चीखते-चिल्लाते हुए
नाराज करते हुए मांझी
और इलाके के देवता को
आखिर क्या पाना चाहती हो तुम
अकाल कि महामारी
आखिर किस घड़ी के लिए
अंटी में खोंस कर लायी थी
बिच्छू-डंक की दवा
अलकुली का बीज कूंचकर!
‘जल उठते पर्वत तो देखती सारी दुनिया
कोई नहीं ताकता
इस दुखियारी मन की ओर’
-गाया करती थी तुम ही
कि कब टूटेगा यह पहाड़ ध्ध्कता हुआ
कि कब छितराएंगे अलकुली के बीज
पफांड़ से छिटककर
कब पिफरेंगे संथाली लड़कियों के दिन
तुम ही सच-सच बता दो न उमी मझेन!।