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एक,दो ,तीन के बाद में चार हो / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
एक दो तीन के बाद में चार हो
जो भी जीवन में हो सिलसिलेवार हो
शेर ऐसे कहो जो चुभें तीर-से
साथ ही तीर की दूर तक मार हो
प्यार करने का अधिकार सबको मिले
प्यार पाने का भी सबको अधिकार हो
बर्फ़ होने न पाए ये संवेदना
हर समय साथ में सुर्ख़ अंगार हो
जैसे चिड़ियों ने दी थी विमानों की ज़िद
उस तरह कल्पनाओं का विस्तार हो
ऐसी सरकार चुनकर न आए कभी
वो जो उन्मादियों की तरफ़दार हो
फिर तो सागर को भी पार कर लेंगे हम
नाव हो और हाथों में पतवार हो.