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भीड़ में सबसे अलग / जहीर कुरैशी
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भीड़ में सबसे अलग

| रचनाकार | जहीर कुरैशी | 
|---|---|
| प्रकाशक | मेधा बुक्स, एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 | 
| वर्ष | 2003 | 
| भाषा | हिन्दी | 
| विषय | ग़ज़ल संग्रह | 
| विधा | ग़ज़ल | 
| पृष्ठ | 112 | 
| ISBN | 81-8166-008-O | 
| विविध | 
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- जो पेड़ मेरे पिता ने कभी लगाया था / जहीर कुरैशी
 - आँसुओं की धार को बंदी बना लेते हैं लोग / जहीर कुरैशी
 - घर में रहकर ही नहीं संवाद हम दोनों के बीच / जहीर कुरैशी
 - पीठ पीछे से हुए वार से डर लगता है / जहीर कुरैशी
 - सत्य ही जब कहानी लगे / जहीर कुरैशी
 - आँखों से सिर्फ़ सच नहीं, सपना भी देखिए / जहीर कुरैशी
 - पिता के घर से पीहर की दिशा में / जहीर कुरैशी
 - डबडबाए नयन का पता चल गया / जहीर कुरैशी
 - दु:ख का मनोविज्ञान छुपाना मुश्किल है / जहीर कुरैशी
 - तमाम जुल्मों को सहने के बाद होता है / जहीर कुरैशी
 - मैंने चाहा बात करे वो फुलवारी की भाषा में / जहीर कुरैशी
 - वो हम नहीं जो हवाओं में घर बनाते हैं / जहीर कुरैशी
 - ज़िन्दगी है तो ज़रूरी है कहानी होना / जहीर कुरैशी
 - पुण्य करते हुए भी थकते हैं / जहीर कुरैशी
 - खोट सद्भावनाओं में है / जहीर कुरैशी
 - जो अपने डर की सीमा जानते हैं / जहीर कुरैशी
 - हमारी आपकी यारी से निकले / जहीर कुरैशी
 - कुछ इरादे सफल न हो पाए / जहीर कुरैशी
 - आपस में इसलिए ही भरोसे नहीं रहे / जहीर कुरैशी
 - हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं / जहीर कुरैशी
 - अंतस में दुबकाकर रखना / जहीर कुरैशी
 - पहले उनके डर समझ में आ गए / जहीर कुरैशी
 - कीट—पतंगे, पशु—पक्षी, आदम / जहीर कुरैशी
 - तुम पर अगर सितारों जड़ा आसमान है / जहीर कुरैशी
 - अपने कद की लड़ाई लड़ी / जहीर कुरैशी
 - नदी के मस्त धारे जानते हैं / जहीर कुरैशी
 - वो जब लुट—पिट गया तो ज्ञान आया / जहीर कुरैशी
 - डूबते ही परी—कथाओं में / जहीर कुरैशी
 - लिंग निर्धारण समस्या हो गई / जहीर कुरैशी
 - मीठी—मीठी आग से परिचित हुए / जहीर कुरैशी
 - अथक प्रयास के उजले विचार से निकली / जहीर कुरैशी
 - अपनी फुलवारी की सीमा / जहीर कुरैशी
 - कभी जो आया था पल भर को / जहीर कुरैशी
 - अनावश्यक से मुझको प्यार / जहीर कुरैशी
 - पहले मन फिर वचन बिक गया / जहीर कुरैशी
 - हवा विपरीत है हम जानते हैं / जहीर कुरैशी
 - अनैतिकता के चश्मों को / जहीर कुरैशी
 - कांच के घर साथ रहते हैं / जहीर कुरैशी
 - व्यक्तिगत छप्पर ने आकर्षित किया / जहीर कुरैशी
 - कई तनाव कई उलझनों के बीच / जहीर कुरैशी
 - इस जीवन का सार / जहीर कुरैशी
 - हर खुशी की आँख में आँसू मिले / जहीर कुरैशी
 - शरीफों के मुखौटों में छिपे हैं भेड़िये कितने/ जहीर कुरैशी
 - कमीज उनकी है लेकिन बदन हमारा है / जहीर कुरैशी
 - काटते—काटते वन गया / जहीर कुरैशी
 - अधिक नहीं,वे अधिकतर की बात करते हैं / जहीर कुरैशी
 - कितनी क्या देर है सवेरे में / जहीर कुरैशी
 - अलग मुस्कान मुद्राएँ अलग हैं / जहीर कुरैशी
 - हम निहारेंगे जिसको , उधर जाएगी / जहीर कुरैशी
 - धीर धरने की बात करते हैं / जहीर कुरैशी
 - घर से निकले सुबह, शाम को घर लौटे / जहीर कुरैशी
 - उनसे मिलने की आस बाकी है/ जहीर कुरैशी
 - हमारे बीच संशय बढ़ रहे हैं/ जहीर कुरैशी
 - कभी—कभी हमें ऐसे भी स्वप्न आते हैं/ जहीर कुरैशी
 - वे जो मातम नहीं जानते/ जहीर कुरैशी
 - घर के अंदर रही,घर के बाहर रही/ जहीर कुरैशी
 - यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं / जहीर कुरैशी
 - औघड़ पर्वत के उलझे केशों में रस्ते ढूँढ लिए/ जहीर कुरैशी
 - कल्पना जिनकी यत्नहीन रही / जहीर कुरैशी
 - युद्ध करना कठिन हो गया/ जहीर कुरैशी
 - पीड़ा से रिश्ता पक्का कर जाता है / जहीर कुरैशी
 - हर समय माँ है दुआओं के करीब / जहीर कुरैशी
 - ये सच है—देह के बाहर भी देखना होगा / जहीर कुरैशी
 - जा रहे हो, मगर, लौटना / जहीर कुरैशी
 - मन के अंदर गुबार क्यों रखना / जहीर कुरैशी
 - प्यार लोगों ने जताया, उम्र भर / जहीर कुरैशी
 - हर समय द्वन्द्व चलते रहते हैं / जहीर कुरैशी
 - जो पुराना घाव था फिर से हरा होने लगा / जहीर कुरैशी
 - जन—कथाओं के नायक बनें / जहीर कुरैशी
 - हमें कहीं न कहीं यह गुमान रहना है / जहीर कुरैशी
 - वे मुश्किलों में भी हँसने की बात करते हैं / जहीर कुरैशी
 - मन में साहस काठी में बल ले कर आए हैं / जहीर कुरैशी
 - लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे / जहीर कुरैशी
 - तुमसे होगा ये मिलना कभी / जहीर कुरैशी
 - रोज़ तूफान आकर डराते रहे/ जहीर कुरैशी
 - ऐसा जीना तो है सजा कोई / जहीर कुरैशी
 - द्वन्द्व को पार करना बड़ी बात है / जहीर कुरैशी
 - शिकार होते रहे हैं शिकार हैं अब तक / जहीर कुरैशी
 - फिर भी, पहुँचे नहीं धाम तक / जहीर कुरैशी
 - वो ठीक एक बजे रोज़ रात में निकले / जहीर कुरैशी
 - मन के अंदर बैठ गया है / जहीर कुरैशी
 - दिन में सौ बार आने लगा / जहीर कुरैशी
 - वे लोग धरती को अंबर के साथ जोड़ेंगे / जहीर कुरैशी
 - खुद-ब-खुद हो गए, आकाश के सपनों से अलग / जहीर कुरैशी
 - कुछ चुहल, कुछ हँसी हो गई / जहीर कुरैशी
 - जब तलक फूल के वंशधर शेष हैं / जहीर कुरैशी
 - कई ख़ुशबू भरी बातों से मिलकर / जहीर कुरैशी
 - एक,दो ,तीन के बाद में चार हो / जहीर कुरैशी
 - उसको घर लौट आना ही था / जहीर कुरैशी
 - जब तक चुप रहता है,वो आसान दिखाई देता है / जहीर कुरैशी
 - हवा से, पेड़ से या आदमी से / जहीर कुरैशी
 - और भी खुश लुटेरे हुए / जहीर कुरैशी
 - सपनों में भी दृश्य ये पाया जाता है / जहीर कुरैशी
 - बाज के हमले निरंतर हो गए / जहीर कुरैशी
 - न बदले मन से, सतह पर जरूर बदलेगा / जहीर कुरैशी
 - कूप-मण्डुक घर में रहे / जहीर कुरैशी
 - धड़कता रहता है दिल साँस चलती रहती है / जहीर कुरैशी
 - जिसको चाहा उसी के साथ रहे / जहीर कुरैशी
 - तीर कुछ इस तरह चलाते हैं / जहीर कुरैशी
 - भीड़ में सबसे अलग,सबसे जुदा चलता रहा / जहीर कुरैशी
 
	
	