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लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
लोग अपने आप से भी युद्ध करने से डरे
अपने अंदर के ‘घमासानों’ में मरने से डरे
घर के अंदर आपके, वैभव की जगमग देखकर
कीमती कालीन पर हम पाँव धरने से डरे
कौन झरना चाहता है जिन्दगी की शाख से
मुस्कुराते फूल ,मन ही मन बिखरने से डरे
कीर्ति के सर्वोच्च पर्वत के शिखर पर बैठ कर
ख्यातिनामा लोग, फिर नीचे उतरने से डरे
हल्के—फुल्के चुट्कुलों की बात मैं करता नहीं
उनके सम्मुख,व्यंग्य चेहरे पर उभरने से डरे!
फिर कोई आकर कुरेदेगा हरे कर जाएगा
इसलिए भी तो हमारे जख्म भरने से डरे
अब सुधरने की कहीं कोई भी गुंजाइश नहीं
सोचकर ये बात, अपराधी सुधरने से डरे.