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शिकार होते रहे हैं शिकार हैं अब तक / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
शिकार होते रहे हैं शिकार हैं अब तक
तमाम लोग सुरक्षा के पार हैं अब तक
पचास पीढ़ियाँ जिन को चुका न पाएँगी
हमारे पुरखों के इतने उधार हैं अब तक
नदी के पाँव में घुँघरू बँधे हुए हैं कहीं
कहीं नदी के सुरों में सितार हैं अब तक
जो गढ़ रहे हैं उसे सिर्फ़ कल्पनाओं में
हाँ इस तरह के भी कुछ मूर्तिकार हैं अब तक
वो एक दल है जो अनुदारवादियों का यहाँ
कुछेक लोग वहाँ भी उदार हैं अब तक
हमारे अश्रू हैं शायद इसी लिए खारे
हमारे मन में समन्दर के ज्वार हैं अब तक
मिटा रहे हैं मगर फिर भी मिट नहीं पाए
तरह-तरह के यहाँ अन्धकार हैं अब तक.