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मैंने चाहा बात करे वो फुलवारी की भाषा में / जहीर कुरैशी
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मैंने चाहा— बात करे वो फुलवारी की भाषा में
वो बातें करती है, लेकिन, चिंगारी की भाषा में
यह कहना भी सत्य नहीं दो सच्चे दोस्त नहीं लड़ते
हम भी लड़ते—भिड़ते रहते हैं यारी की भाषा में
दरबारी लोगों ने अपने स्वाभिमान को बेच दिया
वे क्या बात करेंगे तन कर खुद्दारी की भाषा में
आँखों पर पट्टी बाँधे जो सच को देखा करते है
वे उत्तर देते हैं अक्सर ‘गाँधारी’ की भाषा में
चाहे नन्हा बच्चा मुँह से बोल नहीं पाए, लेकिन,
घर भर से बातें करता है किलकारी की भाषा में
एक विनय के साथ प्रशंसा का भी भाव उभरता है
शब्दों से लेकर आँखों तक आभारी की भाषा में
लोग सामने से आकर अब खुल कर बात नहीं करते
चुपके—चुपके काटा करते हैं आरी की भाषा में