भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तीर कुछ इस तरह चलाते हैं / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
तीर कुछ इस तरह चलाते हैं
हम बहुत बार चूक जाते हैं
हाँ, कई बार जुगनुओं की तरह
अश्रु आँखों में झिलमिलाते हैं
लोग आँखों से सुन भी लेते हैं
फूल जिस वक़्त खिलखिलाते हैं
जिनके दस-बीस नाम होते हैं
वे पचीसों पते बताते हैं
अपने बिस्तर पे सो गए लेकिन
लोग सपनों में जाग जाते हैं
आप काग़ज़ के फूल हैं शायद
मुस्कुराते ही मुस्कुराते हैं !
लोग जिन रास्तों से दूर गए
वे ही रस्ते करीब लाते हैं.