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यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं
जिस ओर भी गईं, वो हमेशा निडर गईं
‘आदम’ की दृष्टि ‘हव्वा’ से टकराई पहली बार
उस एक पल में सैंकड़ों सदियाँ गुज़र गईं
या तो समय को राह में रुकना पड़ा कहीं
या मेरी ‘रिस्टवाच’ की सुइयाँ ठहर गईं !
उस पार करने वाले के साहस को देखकर
नदियाँ चढ़ी हुईं थीं, अचानक उतर गईं
फूलों को अपनी सीमा में रुकना पड़ा, मगर
ये खुशबुएँ हमेशा हदें पार कर गईं