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दिन में सौ बार आने लगा / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
दिन में सौ बार आने लगा
ख़ुद पे धिक्कार आने लगा
देह को बेचते-बेचते
देह-व्यापार आने लगा
एक दो तीन के बाद में
ख़ुद-ब-ख़ुद चार आने लगा
उस फलों से लदे वृक्ष के
मन में आभार आने लगा
आजकल रूप के स्वप्न में
वो लगातार आने लगा
कोई आए न आए मगर
रोज़ अख़बार आने लगा
जो भी शामिल हुआ युद्ध में
उसको संहार आने लगा.