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कई तनाव कई उलझनों के बीच / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
इस जीवन का सार न जाना
ढाई आखर प्यार न जाना
धीरज की सीमा —रेखा को
दु:ख का पारावार न जाना
हम लोगों ने बंजारों—सा
धरती का विस्तार न जाना
बूढ़ा वर नवयुवा वधू के
तन का हाहाकार न जाना
मुझको जान गए दुश्मम तक
लेकिन मेरा यार न जाना
सच—मुच भूख—गरीबी क्या है
ये दिल्ली—दरबार न जाना
सागर में खोने से पहले
नदिया ने अभिसार न जाना