हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं
मैं सोचता हूँ कि मन में गुबार ठीक नहीं
शिकार करने को जंगल भी कम नहीं होते
खुद अपने घर में ही छिप कर शिकार ठीक नहीं
कभी कुठार को खुद पे चला के देख जरा
हमेशा वृक्षों के तन पर कुठार ठीक नहीं
वे रोज़ रात को सो कर भी सो नहीं पाते
ये स्वप्न नींद के अंदर जगार ठीक नहीं
मैं जूझता हूँ सदा एकमुश्त आँधी से
अनेक किश्तों में आँधी पे वार ठीक नहीं
तुम्हारे बारे में, हम भी तो सोचते होंगे
स्वयं के मुँह से स्वयं का प्रचार ठीक नहीं