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वो हम नहीं जो हवाओं में घर बनाते हैं / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
वो हम नहीं जो हवाओं में घर बनाते हैं
मकान, ठोस जगह देखकर बनाते हैं
वे लोग आग लगाने से पूर्व चुपके से
शहर के लोगों में दंगों का डर बनाते हैं
शिखर—पुरुष तो जनम से कोई नहीं होता
शिखर—पुरुष के लिए, हम शिखर बनाते हैं
शहर मिटा के बनाए हों गाँव, याद नहीं
ये लोग गाँव मिटा के शहर बनाते हैं
नज़र के चश्में परस्पर ये बात करते हैं
तमाम लोगों की हम भी नज़र बनाते हैं !