Last modified on 21 अप्रैल 2021, at 22:46

पहले मन फिर वचन बिक गया / जहीर कुरैशी

पहले मन फिर वचन बिक गया
व्यक्ति का मूलधन बिक गया

देह के गर्म बाज़ार में
हर कली, हर सुमन बिक गया

रक्षकों को खबर ही नहीं
और चुपके से वन बिक गया

'द्रौपदी' नग्न होने को है
इस सदी का किशन बिक गया

उसका बस एक ही स्वपन था
अंतत: वो स्वपन बिक गया

डगमगाने लगी है तुला
न्याय का संतुलन बिक गया

'सैटेलाइट' के आदेश पर
इस धरा का गगन बिक गया