एक युग की कविता / लक्ष्मीकान्त मुकुल

पहाड़ों और नदियों को
सात-सात बार लांघकर
पहुंचा जा सकता था मेरे गांव में
अब का नहीं तब का हिसाब है यह
आकाश छूते छरहरे पेड़ों की ओट में
आदिम लय-ताल पर झूमते रहते लोग-बाग
बारिश अपने समय पर होती
अवसर की ताक में अंखुवाने को चुप
बैठे रहते लौकी के बीज
गाय जब चाहो दूध देती
कोई बच्चा जब रोने लगता
तब तो और
तब नहीं बनी थीं पत्थर की ये सड़कें
तो भी पुरखे चल देते थे झिझक-बगैर
दस कोस दूर गंगा स्नान के पैदल ही
जीने की ललक को वे
पफसलों की तरह बचाते थे अगोरिया करते हुए
ताकि हमले न हो जाये बनचरों के
आजादी की लड़ाई में भले न उभरा हो उनका नाम
लड़े थे वे पिफर अपने खेतों की हरियाली के लिए
बंजर धरती पर सोना उपजाया था उन्होंने
चाहता हूं बचाये रखना उन भूली स्मृतियों को
समय के इन तेज अंध्ड़ों से।

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