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एक शूल / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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एक शूल
और चुभा पाँव में!

मंजिल है पास, बहुत दूर नहीं,
तन भी तो बहुत चूर-चूर नहीं,
फूलों से निकलेंगे काँटे, उस गाँव में!
एक शूल
और चुभा पाँव में!

रुकने से कसकन बढ़ जायेगी,
खोई गति हाथ नहीं आयेगी,
चले-चलो बादल की चलती इस छाँव में!
एक शूल
और चुभा पाँव में!

थोड़ा पथ चलना, फिर पानी है,
नदी खूब जानी-पहचानी है,
हारा सब जीतोगे, अंतिम इस दाँव में!
एक शूल
और चुभा पाँव में!