एक सबेरा / यतींद्रनाथ राही
चादर तो मिली बहुत
नगर में जुलाहों के
किसी गली कूचे में
मिला ना कबीर एक।
टहनी की टुनियाई
घुँघटाई कलियों ने
मुट्ठी भर गन्ध झरी
भौंरे पी मदिराए
मनचीती बातों के
रँगराती रातों के
बीते सम्बन्धों के
पृष्ठ नए उघराए
किरन थाम
खिड़की से
उतरा जे आँगन में
पलकों को छू गया
भोर का समीर एक।
भीड़ों के धकियाए
कुचले पर मुस्काए
पपड़ाए ओठों पर
सन्तोशी पाठ धरे
मुट्ठी भर मुद्राएँ
रण-जीते गर्वित से
गटकाए कड़वाहट
वाणी में ओज़ भरे
सतरंगे सपनों का
मोहजाल अम्बर में
अन्तर में
रह रह कर
कसक रही पीर एक।
बाहर से
पुलकित से
भीतर से
शंकित से
शक्ल कहाँ देखें अब
दर्पण सब खण्डित से
सिर पर है तेग
और पाँव तले गहन कूप
पल भर में झाड़ दिया
आँधी ने रंग-रूप
मदिरा में डूबे थे
सोते थे जगे नहीं
चाबियाँ कुबेरों की
ले भगा
फकीर एक।