ऐ दिल! / मुकेश निर्विकार
हल्की-हल्की, मीठी-मीठी ऐंठन को,
चलो, आजकल, आखिर तुम
महसूसते तो हो
ऐ दिल!
पिछले एक लंबे अरसे से तुमने
छोड़ दिया था महसूसना ही
नहीं पिघलते थे किंचित भी
गरीबों का रक्त चूसते वक्त,
विधवा, अंबाला, निर्धन,
दीन-हीन दारुण, करुण,
चेहरों को देखकर भी!
“जो आँख ही से न टपका
तो वो लहू क्या है?”—
मेरा प्रश्न है तुमसे
ऐ दिल!
क्योंकि तुम ही तो ढोते हो,
पंप कर धकियाते हो
सारे शरीर में
ऐसे विकृत, संवेदनहीं लहू को लगातार, बार-बार,
ऐ दिल!
छोड़ दो बंधन स्नेह का
रक्त से
मत बहाओ उसे
इधर से उधर
शरीर में
निरर्थक
जीवन का संवाहक बनाकर
ऐ दिल!
तुमने बनाया है अब तक
साँसों की सरगम के
साज को
सुदीर्घ
अपने दम पर!
मगर आज
शायद
तुम्हारी
सहनशक्ति की
इंतिहा हो गई है
तभी तो तुम
अब करने लगे हो
हल्की-हल्की शिकायत
तुम्हारी आनाकानी है
मुझे महसूसती है
दिल की जगह पर
अपनी छाती की ऐंठन में!
मगर, ऐ दिल!
अब तुम विराम ले सकते हो
नहीं रहा है मोह मुझे
बेगार साँस ढोने का।
अब मुझे भी तुम
अपना विसर्जन करने दो
पंचतत्त्वों का विलग हो जाने दो
मुझे भी तुम अब महाप्रयाण पर जाने दो....
ऐ दिल.....