ऐ सनम तूने अगर आँख लड़ाई होती,
रूह क़ालिब से उसी दम ही जुदाई होती।
तू ने गुस्से से अगर आँख दिखाई होती,
रूह क़ालिब से उसी दम निकल आई होती।
हफ़्त इक़लीम के शाही का न ख्वाहाँ होता,
उसके कूचे की मयस्सर जो गदाई होती
दिले मजनू तो कभी होता न लैली का असीर,
रश्के लैली जो कहीं तू नजर आई होती।
लेता फिर नाम न फ़रहाद कभी शीरीं का,
चाँद-सी तुमने जो सूरत ये दिखाई होती।
गो कि फूला न फला नख्ले तमन्ना फिर भी,
उसके गुलज़ार तक अपनी जो रसाई होती।
तेगे अबरू जो कहीं होती न तेरी खमदार,
तो न मैं शौकसे गर्दन ये झुकाई होती।
फिर तो इस पेच में पड़ता न कभी मैं ऐ अब्र,
जुल्फ पुरपेंच से अबकी जो रिहाई होती॥7॥