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ऑंधियाँ भी हों / रामकुमार कृषक
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ऑंधियॉं भी हों
हवा ही क्यों
घुटेगा दम
घुटन ऐसी है कुछ वातावरण में !
भीड़ चारों ओर
आलातर दिमाग़ों की
नुमायश फिर उन्हीं की
है बहुत मुश्किल
हृदय में धड़कनों की ताज़गी,
पूछिए मत हाल
रोटी की ख़ुशी का
आप अपने से ही बढ़ती जा रही
नाराज़गी,
सामने जो घट रहा है
स्यात् संभावित नहीं था आवरण में !
ताज़गी को क़ैद
बासीपन निरा छुट्टा
वही फिर कुर्सियों पर
है बहुत मुश्किल
खिले-महके बराबर आदमी,
वक़्त का सिर
सोच से भन्ना रहा है
सोखती है आदमीयत के बग़ीचे को
नमी,
सभ्यता जंगल सरीखी
और जंगल ओहदों के आचरण में !
22-5-1976