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और कितना जलें रोशनी के लिए / डी. एम. मिश्र

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और कितना जलें रोशनी के लिए
बुझ गए जो दिए, बुझ गए वो दिए

इक तरह से ही दुनिया से रुख़्सत हुए
वो जो भूखे थे, वो जो थे खाए पिए

यूँ तो बरसों बरस ठाट से हम रहे
चार पल भी मगर कब सुकूँ से जिए

लीक पर चल के क्या, कुछ नया पा सके?
ले के जोख़िम नये रास्ते खोजिए

चार दिन के लिए ही थी कुर्सी मिली
दूसरों के लिए अब इसे छोड़िए

काफ़ी दौलत बनायी हुज़ूर आपने
साथ ले जा सकें गर तो ले जाइए

साथ मेरा तुम्हारा यहीं तक का था
मैं चला दोस्त कोई नया ढूँढिये