भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

और दे दिया मुझे उपनाम विनम्र अहंकारी का सोचना ज़रा / वंदना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसने कहा: आजकल तो छा रही हो
                  बडी कवयित्री /लेखिका बनने के मार्ग पर प्रशस्त हो

मैने कहा: ऐसा तो कुछ नही किया खास
                तुम्हें क्यों इस भ्रम का हुआ आभास
                मुझे मुझमें तो कुछ खास नज़र नहीं आता
                फिर तुम बताओ तुम्हें कैसे पता चल जाता

उसने कहा: आजकल चर्चे होने लगे हैं
                  नाम ले लेकर लोग कहने लगे हैं
                  स्थापितों में पैंठ बनाने लगी हो

मैने कहा: ऐसा तो मुझे कभी लगा नहीं
                क्योंकि कुछ खास मैने लिखा नहीं

वो बोला: अच्छा लिखती हो सबकी मदद करती हो
                फिर भी विनम्र रहती हो
                मैं बता रहा हूँ मान लो

मैं कहा: मुझे तो ऐसा नहीं लगता
             वैसे भी अपने बारे में अपने आप
             कहाँ पता चलता है
             फिर भी मुझसे जो बन पडता है करती हूँ
             फिर भी तुम कहते हो तो
             चलो मान ली तुम्हारी बात

वो बोला: इतनी विनम्रता!!
              जानती हो अहंकार का सूचक है?
              ज्यादा विनम्रता भी अहंकार कहलाता है

मैं बोली: सुना तो है आजकल
              सब यही चर्चा करते हैं

तब से प्रश्न खडा हो गया है
जो मेरे मन को मथ रहा है
गर मैं खुद ही अपना प्रचार करूँ
अपने शब्दों से प्रहार करूँ
आलोचकों समीक्षकों को जवाब दूँ
तो अतिवादी का शिकार बनूँ
और विद्रोहिणी कहलाऊँ
दंभ से ग्रसित कह तुम
महिमामंडित कर देते हो
ये तो बहुत मुखर है
ये तो बडी वाचाल है
ये तो खुद को स्थापित करने को
जाने कैसे-कैसे हथकंडे अपनाती है
बडी कवयित्री या लेखिका बनने के सारे गुर अपनाती है
जानते हो क्यों कहते हो तुम ऐसा
क्योंकि तुम्हारे हाथो शोषित नही हो पाती है
खुद अपनी राह बनाती है और बढती जाती है
पर तुम्हें ना अपनी कामयाबी की सीढी बनाती है

तो दूसरी तरफ़
यदि जो तुम कहो
उसे भी चुपचाप बिना ना-नुकुर किये मान लेती हूँ
चाहे मुझे मुझमें कुछ असाधारण ना दिखे
गर ऐसा भी कह देती हूँ
तो भी अहंकारी कहलाती हूँ
क्योंकि आजकल ये चलन नया बना है
जिसे हर किसी को कहते सुना है
ज्यादा विनम्र होना भी
सात्विक अहंकार होता है

तो बताओ अब ज़रा
मैं किधर जाऊँ
कौन सा रुख अपनाऊँ
जो तुम्हारी कसौटी पर खरी उतर पाऊँ?

जबकि मैं जानती हूँ
नहीं हूँ किसी भी रैट रेस का हिस्सा
बस दो घडी खुद के साथ जीने को
ज़िन्दगी के कुछ कडवे घूँट पीने को
कलम को विषबुझे प्यालों मे डुबोती हूँ
तो कुछ हर्फ़ दर्द के अपने खूँ की स्याही से लिख लेती हूँ
और एक साँस उधार की जी लेती हूँ
बताओ तो ज़रा
इसमें किसी का क्या लेती हूँ

ये तो तुम ही हो
जो मुझमें अंतरिक्ष खोजते हो
मेरा नामकरण करते हो
जबकि मैं तो वो ही निराकार बीज हूँ
जो ना किसी आकार को मचलता है
ये तो तुम्हारा ही अणु
जब मेरे अणु से मिलता है
तो परमाणु का सृजन करता है
और मुझमें अपनी
कपोल कल्पनाओं के रंग भरता है
ज़रा सोचना इस पर
मैने तो ना कभी
आकाश माँगा तुमसे
ना पैर रखने को धरती
कहो फिर कैसे तुमने
मेरे नाम कर दी
अपनी अहंकारी सृष्टि
और दे दिया मुझे उपनाम
विनम्र अहंकारी का सोचना ज़रा
क्योंकि
खामोश आकाशगंगाये किसी व्यास की मोहताज़ नहीं होतीं
अपने दायरों में चहलकदमी कैसे की जाती है वो जानती हैं