भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कई बरस से यहां अजनबी रहा हूँ मैं / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
कई बरस से यहां अजनबी रहा हूँ मैं
तमाम शहर में इक तुझको जानता हूँ मैं
ठहर गई है उसी वक़्त गर्दिशे-दौरां
कभी जो तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं
तुम्हारे साथ बिताये थे मैंने जो लम्हें
उन्हीं की क़ैद में क्यों आज तक पड़ा हूँ मैं
किसी के आने की उम्मीद तो नहीं लेकिन
कभी कभी युंही दरवाज़ा खोलता हूँ मैं
मैं दिल की बात कहूँ उससे तो कहूँ क्योंकर
वो एक शख्स जिसे मोतबर लगा हूँ मैं।
कभी जो वक़्त की लू जिस्म को जलाती है
तिरे ख़याल की बारिश में भीगता हूँ मैं।