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कजली / 11 / प्रेमघन

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॥झूले की कजली॥

झूलन कालिन्दी के कूलन झूलन चलिये नन्दकिसोर॥
बृन्दाबन कुसुमित कदम्ब की कुंजनि नाचत मोर।
कूकत कोइल, चहँकत चातक, दादुर कीने रोर॥
सरस सुहावन सावन आयो, घहरत घिरि घन घोर।
अँधियारी अधिकात, चंचला चमकि रही चित चोर॥
मन भाई छाई छबि सों छिति हरियारी चहुँ ओर॥
लहरावत दु्रम लता चलत पुरवाई पवन झँकोर॥
चलौ उतै जनि बिलम करौ मन ठानत हठ बरजोर।
पिया प्रेमघन! बरसावहु रस दै आनन्द अथोर॥21॥

॥दूसरी॥

झूलत राधा गोरी के सँग सोहत सुघर सलोने स्याम॥
गल बाहीं दीनै दोऊ राजत, मानहुँ रति अरु काम।
छहरत छबि छन छबि मिलि ज्यों घनस्याम नवल अभिराम॥
मन मोहत मिलि ज्यों कालिन्दी, सुरसरिता इक ठाम।
पाय प्रेमघन चन्द लगत प्रिय जथा जामिनी जाम॥22॥

॥तीसरी॥

झूलैं राधा सँग बनमाली, आली! कालिन्दी के तीर॥
नचत कलापी कदम कुंज, किलकारत कोकिल, कीर।
बिकसे जहाँ प्रसून पंुज, गुंजरत भौंर की भीर॥
लचत लंक लचकीली लचकत, प्यारी होति अधीर।
निरखि प्रेमघन प्रेम बिबस ह्वै भरत अंक बलबीर॥23॥

॥चौथी॥

प्यारी पावस की ऋतु आई, झूलत पिय के संग प्यारी।
राजत रतन जरित हिंडोर पर गर बहियाँ डारी॥
निरखि सुहावन सावन घन की घिरी घटा कारी।
नाचत मोर, कोकिला, चातक चहँकत हिय हारी॥
बन प्रमोद सुन्दर सरजू तट भईं भीरभारी।
रघुनन्दन संग जनक नन्दनी मिलि सखियाँ सारी॥
गावत कजरी औ मलार सावन बारी बारी।
बरसत जुगल प्रेमघन रस हरसत जनु मन वारी॥24॥