भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कजली / 25 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
गृहस्थिनी की लय
साँवरी मुरतिया नैन रतनारे, जुलुम करैं गोरिया रे तोरे जोबना
मोहत मन तोरे दाँते कै बतिसिया, करत चितचोरिया रे तोरे
देखतहीं हिय पैठत मनहुँ, कटरिया कै कोरिया रे तोरे जो।॥
रसिक प्रेमघन को मन छोरि, लेत बरजोरिया रे तोरे जो।॥
॥दूसरी॥
कारी घटा घिरि आई डरारी, दुरि-दुरि दमकै री दामिनियाँ॥
प्यारी पुरवाई सुखदाई, भाई चंचल गति गामिनियाँ॥
झिल्ली दादुर मोर पपीहा, सोर मचावैं जुरि जामिनियाँ॥
बिहरत संजोगिनी प्रेमघन बिलखत बिरही जन कामिनियाँ॥