भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कजली / 34 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

द्वितीय भेद

न्यूनता

तो से तो डर लागै रे बेइमनबाँ॥
नैन लड़ाय लुभाव, फेरि सुधि त्यागै रे बेइमनवाँ॥
मन्द मन्द मुसुकाय, दूर लखि भागै रै बेइमनवाँ॥
झूठी मिलन आस दै, रैन दिना दिल दागै रे बेइमनवाँ॥
रसिक प्रेमघन रोजै जाय, सौति संग जागै रे बेइमनवाँ॥60॥