कजली / 40 / प्रेमघन
गवनहारिनों की लय
घूमो मत इतरानी, भरी गरूरन भौंहन तानी रामा।
हरि हरि जानी चार दिना की जिन्दगानी रे हरी॥
जोबन रूप दिवानी, बोला सबसे अटपट बानी रामा।
हरि हरि मानो मन में अपने को लासानी रे हरी॥
है बादर परछाहीं रहिहै यह कबहूँ थिर नाहीं रामा।
हरि हरि बिते जवानी, कोऊ काम न आनी रे हरी॥
हँस कर कबहुँ न ताको, हाय झरोखेहू नहिं झाँकी रामा।
हरि हरि यार प्रेमघन से हठ बरबस ठानी रे हरी॥73॥
॥दूसरी॥
सूरतिया ना भूलै, हिय में हाय हमारे हूलै रामा।
हरि हरि जानी तोरी चंचल चितवनियाँ रे हरी॥
प्यारी प्यारी बतियाँ, सोहैं कुछ-कुछ उभरी छतियाँ रामा।
हरि हरि बारी-बारी निखरी जोति जवनियाँ रे हरी॥
सरस प्रेमघन बरसत रस, मृदु मन्द-मन्द मुसुकाई रामा।
हरि हरि मारि गई मोहिं मनहुँ मूठ मोहनियाँ रे हरी॥75॥
॥तीसरी॥
बनारसी लय
सावन रस उपजाव बीतन चाहत ये बेदरदी रामा।
एक बेर दे देखै भरि नजरिया रे हरी॥
झलकौ नहीं दिखाओ, दिल में दया दरद नहीं ल्याओ रामा
काहे मारो बरबस बिरह कटरिया रे हरी॥
रसिक प्रेमघन बदरी नारायण मन लै मत भूलो रामा।
कतरावो जिन हमको देखि डगरिया रे हरी॥74॥