भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कजली / 46 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गोबर्धनधारण
 (अनुराग बिन्दु से)

इन्द्र कोप करि आए, सँग में प्रलय मेघ लै धाए रामा।
हरि हरि राखो बृजराज! आज भय भारी रे हरी॥
घुमड़ि घोरघन कारे, घिर घिरि ज्यों कज्जल गिर भारे रामा।
हरि हरि आय रहे जग छाय सघन अँधियारी रे हरी॥
बज्रनाद करि धमकैं, चारहुँ ओर चंचला चमकैं रामा।
हरि हरि प्रबल पवन धरि झोकैं झंझा झारी रे हरी॥
बरसैं मूसल धारा, जाको कहूँ वार नहिं पारा रामा।
हरि हरि जल हीजल दरसात भरी छिति सारी रे हरी॥
गो, गोपी, गोपाल, भये बेहाल सबै मिलि टेरैं रामा।
हरि हरि नन्द जसोमति मिलि हे रैं बनवारी रे हरी॥
अकुलानी राधा रानी, हिय लागि स्याम सों भाखैं रामा।
हरि हरि! "राखहु ब्रज बूड़त अब हाय मुरारी!" रे हरी॥
दुखित देखि सबही करुनाकर, करुना कर-कर ऊपर रामा।
हरि हरि गिरि गोबरधन धर्यो धाय गिरधारी रे हरी॥
चकित भये ब्रजबासी, अचरज देखि धन्य धनि भाखैं रामा।
हरि हरि बरसैं सुमन सकल सुर अंबर चारी रे हरी॥
बरसि थके नहिं पर्यो बुंद ब्रज, भाजे तब सिर नाई रामा
हरि हरि समझि प्रेमघन सुरनायक हिय हारी रे हरी॥82॥