भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कजली / 68 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
नवीन संशोधन
मोहे मन बंसिया बजाय कै रे साँवलिया॥
बँसिया बजाय कै, सरस सुर गाय कै,
मीठी मीठी तान सुनाय कै; रे साँवलिया।
नैनवां नचाय कै, भउहँ मटकाय कै,
मधुर मधुर मुसुकाय कै; रे साँवलिया॥
नेहियाँ बढ़ाय कै, ललचि ललचाय कै,
तन मन मदन जगाय कै; रे साँवलिया।
बेगि प्रेमघन रस बरसाय कै,
मिलु पिय हिय हरखाय कै, रे साँवलिया॥115॥
॥दूसरी॥
जावे कहँ लगन लगाय कै; रे साँवलिया॥
कुंजन में आय कैं, बँसुरिया बजाय कै,
सखियन सबन बुलाय कै; रे साँवलिया।
भावन दिखाय कै, रसीली गीत गाय कै,
चितव चितहि चुराय कै; रे साँवलिया॥
रासहि रचाय कै, अंगपरसाय कै,
सब सुधि बुधि बिसराय कै; रे साँवलिया।
पिया प्रेमघन गरवाँ लगाय कै,
सब रस लिहे मन भाय कै; रे साँवलिया॥116॥