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कठिन समय में प्रेम / विमलेश त्रिपाठी

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एक कठिन समय में मैंने कहे थे
उसके कानों में
कुछ भीगे हुए-से शर्मीले शब्द
उसकी आँखों में मुरझाए अमलतास की गन्ध् थी
वह सुबक रही थी मेरे कान्ध्े पर
आवाज लरजती हुई-सी
कहा था बहुत ध्ीमे स्वर में-
यह ध्रती मेरी सहेली है
और ध्रती को रात भर आते रहते हैं डरावने सपने
कई पूफल मेरे आँगन के, दम घुटने से मर गये हैं
खामोशी मेरे चारों ओर ध्ुएँ की तरह पसरी रहती है
वह चुप थी
भाषा शब्दों से खाली
एक ऐसा क्षण था वह हमारे बीच
कि उसकी नींद में खुलता था
और पैफल जाता था चारों ओर एक ध्ुँध् की तरह
हम बीतते जाते थे रोज
हमारे चेहरे की लकीरें बढ़ती जाती थीं
पिफर एक दिन
लौटाया था उसने
मेरे भीगे हुए वे शब्द
हू-ब-हू वैसे ही
चलते-चलते उसकी आँखों के व्याकरण में
कौंध्ी थी कुछ लकीरें
शायद उसे कहना था
सुनो, मैं ध्रती हूँ असंख्य बोझों से दबी हुई
शायद उसे यही कहना था
वह हमारी आखिरी मुलाकात थी